सोचा की देखता हूँ , आखिर क्या मेरे मन में है आँका |
चौंक गया , पाया एक शांत समंदर ,
जिसमें विलित हैं मेरे अनगिनत समय |
थोडा सा घबराया की मुझे किसी बुरे समय का प्रतिबिम्ब न मिल जाये ,
थोडा सा घबराया की मुझे उन्हें देख फिर कुछ याद न आ जाये |
फिर ज़रा सा साहस जुटाया और यूँ ही उस समंदर में दुबकी मार दिया ,
दुबकी लगते ही मैं आपने मन की गहराईयों में समां गया |
पाया एक सुन्दर शिशु जो ठीक मेरे जैसा दीखता है ,
निष्पाप , आचारी और गुनी आत्मा सा लगता है |
उसे देखकर ज़हन में कई प्रश्न तो ज़रूर उत्पन्न हुए ,
पर सारे जवाब भी मेरे ज़हन को उसी क्षण मिल गए |
उस शिशु से मैंने कहा की सदैव ऐसा ही रहना ,
तुंरत उत्तर में वो शिशु बोला , तुम अपने मन को ज्यादा विचलित मत करना |
अपने प्रिय जानो के साथ प्यार से रहना ,
और घ्रिना भावः को दूर भागना ,
अपने इस मन के समंदर को सदैव आचे पलों के मोतियों से सजाना |
उस शिशु को सुनते सुनते मैंने अपने में एक बदलाव पाया ,
मेरा मन और साफ़ हुआ , और मैं शांत भावः से बाहर आया |
- Diptesh Mallick.
Hey Guys n Gals ,
ReplyDeleteThis is the first real poem of my life...
I was really looking forward to it for a long time.
- Diptesh Mallick.
honestly its better than what i had expected...really good for the beginer...spelling mistakes are too many,but that is a small thing...apart from that the ideas and expressions are good (exceept for the strange 2nd line!!)
ReplyDeleteDear Sajal,
ReplyDeleteThe spelling mistakes occurred due to the hindi translator that I had used.
And,really thanks for your kind comment.