Sunday, June 14, 2009

मन




कल मैंने अचानक आपने मन के अन्दर झाँका ,
सोचा की देखता हूँ , आखिर क्या मेरे मन में है आँका |
चौंक गया , पाया एक शांत समंदर ,
जिसमें विलित हैं मेरे अनगिनत समय |

थोडा सा घबराया की मुझे किसी बुरे समय का प्रतिबिम्ब न मिल जाये ,
थोडा सा घबराया की मुझे उन्हें देख फिर कुछ याद न आ जाये |
फिर ज़रा सा साहस जुटाया और यूँ ही उस समंदर में दुबकी मार दिया ,
दुबकी लगते ही मैं आपने मन की गहराईयों में समां गया |

पाया एक सुन्दर शिशु जो ठीक मेरे जैसा दीखता है ,
निष्पाप , आचारी और गुनी आत्मा सा लगता है |
उसे देखकर ज़हन में कई प्रश्न तो ज़रूर उत्पन्न हुए ,
पर सारे जवाब भी मेरे ज़हन को उसी क्षण मिल गए |

उस शिशु से मैंने कहा की सदैव ऐसा ही रहना ,
तुंरत उत्तर में वो शिशु बोला , तुम अपने मन को ज्यादा विचलित मत करना |
अपने प्रिय जानो के साथ प्यार से रहना ,
और घ्रिना भावः को दूर भागना ,
अपने इस मन के समंदर को सदैव आचे पलों के मोतियों से सजाना |

उस शिशु को सुनते सुनते मैंने अपने में एक बदलाव पाया ,
मेरा मन और साफ़ हुआ , और मैं शांत भावः से बाहर आया |


- Diptesh Mallick.

3 comments:

  1. Hey Guys n Gals ,

    This is the first real poem of my life...
    I was really looking forward to it for a long time.

    - Diptesh Mallick.

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  2. honestly its better than what i had expected...really good for the beginer...spelling mistakes are too many,but that is a small thing...apart from that the ideas and expressions are good (exceept for the strange 2nd line!!)

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  3. Dear Sajal,

    The spelling mistakes occurred due to the hindi translator that I had used.

    And,really thanks for your kind comment.

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